Sunday 1 December 2019

राज ठाकरे का क्या है भविष्य


राज ठाकरे का क्या है भविष्य, क्या उद्धव की चिंता बढ़ाएंगे या उनके क़रीब चले जाएंगे?



शिवसेना-बीजेपी के अलग होने और शिवसेना के एनसीपी और कांग्रेस के साथ जाने के बाद से यह चर्चा ज़ोर पकड़ रही है कि अब राज ठाकरे का राजनीतिक भविष्य क्या होगा. शनिवार को विधानसभा में हुए बहुमत परीक्षण में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के विधायक तटस्थ रहे थे. उन्होंने किसी के पक्ष में वोट नहीं डाला था.


महाराष्ट्र की राजनीति में ऐतिहासिक परिवर्तन हो रहे हैं, ऐसे में क्या महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) की राजनीति भी बदेलगी?


बीबीसी के भारतीय भाषाओं के डिजिटल एडिटर मिलिंद खांडेकर की माने तो राज ठाकरे के पास अब बीजेपी के साथ जाने का विकल्प है.


मिलिंद बताते हैं, ''राज ठाकरे की पार्टी मनसे को 13 साल से अधिक समय हो गया है. उन्हें अभी तक राज्य की सरकार में हिस्सेदारी नहीं मिली. जब मनसे का गठन हुआ था तब महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी गठबंधन की सरकार थी उसके बाद 2014 में बीजेपी सत्ता में आ गई और अब शिवसेना सरकार का नेतृत्व कर रही है. तो ऐसी सूरत में मनसे के पास बीजेपी के साथ जाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है. लेकिन सवाल यह है कि क्या बीजेपी मनसे के साथ जाने के लिए तैयार होगी.''


मिलिंद अपने बातों को और विस्तार देते हुए कहते हैं, ''राज ठाकरे का प्रभाव क्षेत्र मुंबई से बाहर नहीं है. उनकी पकड़ मुंबई और नासिक में है. उनकी पार्टी की पकड़ पूरे राज्य पर नहीं है. इसलिए फ़िलहाल ऐसा नहीं लग रहा कि बीजेपी उनके साथ जा रही है. यह सवाल चुनाव के दौरान ज़रूर उठ सकता है. फ़िलहाल तो राज ठाकरे के लिए चुप रहने के सिवाए कोई दूसरा रास्ता नहीं है.''


वहीं वरिष्ठ पत्रकार धवल कुलकर्णी मानते हैं कि राज ठाकरे को जब मौक़ा मिलेगा तो वो शिवसेना के लिए चुनौती ज़रूर पेश करेंगे.


धवल कुलकर्णी कहते हैं, ''अगर राज ठाकरे शिवसेना के लिए मुश्किलें खड़ी करेंगे तो उन्हें बीजेपी का साथ भी मिलेगा. शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस के बीच वैसे भी विचारधारा के स्तर पर सामंजस्य की कमी है. शिवसेना को सरकार चलाते समय हिंदुत्व और मराठी अस्तित्व के अपने दो अहम मुद्दों को पीछे रखना होगा. ऐसी हालत में जब शिवसेना मराठी अस्तित्व के मुद्दे पर पीछे हटेगी तो मनसे के पास इस मुद्दे को उठाने का मौक़ा रहेगा और शिवसेना के लिए मुश्किलें भी पैदा कर सकती है.''


''वैसे राज ठाकरे के रुतबे में पहले के मुक़ाबले गिरावट आई है. साल 2009 में उनके 13 विधायक थे जबकि साल 2014 और 2019 में उनके सिर्फ़ एक विधायक ही विधानसभा तक पहुंच सके. लेकिन हमें राज ठाकरे के जलवे पर शक़ नहीं करना चाहिए, वो किसी भी मौक़े को भुनाने में पीछे नहीं रहते. उन्होंने ऐसा ही काम उत्तर भारतीय और मराठा पहचान के मुद्दे पर भी किया है. क्या पता आने वाले पांच सालों में हमें दोबारा पुराने वाले राज ठाकरे देखने को मिले.''



'राज ठाकरे को काम करने की ज़रूरत'



अगर राज ठाकरे को राज्य की राजनीति में अपनी छाप छोड़नी है तो उन्हें काम की ज़रूरत पड़ेगी. ऐसा मानना है वरिष्ठ पत्रकार विजय छोमारे का.


वो कहते हैं, ''महाराष्ट्र की संसदीय राजनीति में राज ठाकरे की कोई जगह नहीं है, क्योंकि उनकी पार्टी से सिर्फ़ एक ही विधायक हैं. मौजूदा हालात में वो किसी का साथ दें उसका कोई मतलब नहीं है. तो अगर राज ठाकरे को राज्य की राजनीति में ख़ुद को ज़िंदा रखना है तो उन्हें काम करना होगा, जो उन्होंने अभी तक नहीं किया है.''


''राज ठाकरे ने पार्टी संगठन को मज़बूत करने की दिशा में अधिक काम नहीं किया है. जब चुनाव आते हैं तब वो सिर्फ़ कुछ रैलियां करते हैं और सरकार की आलोचना करते हैं. लेकिन एक राजनीतिक दल को आगे बढ़ने के लिए और भी बहुत कुछ करना होता है.''


''पिछले पांच साल में उनके पास कई बड़े मौक़े थे लेकिन उन्होंने कभी भी उसे गंभीरता से नहीं लिया. समसामयिक राजनीति में उनका स्थान ऐसा हो गया है जैसे वो या तो सिर्फ़ उन्हीं मुद्दों पर बोलेंगे जिनकी उन्हें चिंता है या फिर जब उनके कार्यकर्ता किसी विरोध में हिस्सा ले रहे होंगे.''


क्या राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे साथ आएंगे?


राज ठाकरे शिवाजी मैदान में आयोजित हुए उद्धव ठाकरे के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल हुए थे. इसके साथ ही राज और उद्धव दोनों ही शरद पवार के क़रीबी बताए जाते हैं. ऐसे में इस बात की चर्चा भी गर्म है कि क्या दोनों भाई एक बार फिर साथ मिलकर काम करेंगे. हालांकि वरिष्ठ पत्रकार अभिजीत ब्रह्मांठकर इन अटकलों को खारिज करते हैं.


वो कहते हैं, ''परिवार के साथ खड़ा होना और राजनीतिक क़दम उठाना, इन दोनों में बड़ा फ़र्क़ होता है. कुछ दिन पहले जब यह घोषणा हुई थी कि वर्ली से आदित्य ठाकरे चुनाव लड़ेंगे तो राज ठाकरे ने वहां से मनसे का उम्मीदवार नहीं उतारा. वो इस बात को हवा नहीं देना चाहते थे कि राज ठाकरे ने जानबूझकर ठाकरे परिवार के सदस्य के ख़िलाफ़ उम्मीदवार खड़ा किया है.''


''दूसरी बात यह है कि राज ठाकरे ने हमेशा परिवार और राजनीति को अलग-अलग रखा है. जब उनके बेटे अमित की शादी थी तब वो उद्धव ठाकरे को न्योता देने ख़ुद गए थे. उस शादी समारोह में उद्धव ठाकरे, आदित्य ठाकरे और रश्मी ठाकरे सभी शामिल हुए थे. अब जब उद्धव ठाकरे का शपथ ग्रहण समारोह था तो राज ठाकरे उसमें शामिल हुए. लेकिन इसका यह मतलब बिलकुल नहीं है कि ये दोनों भाई राजनीतिक तौर पर साथ आ जाएंगे.''



मनसे की क्या स्थिति है?


मनसे के प्रवक्ता संदीप देशपांडे ने बीबीसी के साथ बातचीत में कहा था कि मनसे अपने महाराष्ट्र धर्म के रास्ते पर ही चलती रहेगी और मराठी मानुष के पक्ष लेगी.


संदीप देशपांडे कहते हैं, ''इस तरह के निष्कर्ष निकालने का कोई फ़ायदा नहीं कि मनसे बीजेपी के साथ चली जाएगी या किसी और पार्टी के साथ चली जाएगी. एनसीपी, शिवसेना और कांग्रेस के साथ आने का यह मतलब नहीं कि मनसे बीजेपी के साथ जाने वाली है. मनसे अपनी भविष्य की रणनीति यह देखने के बाद तय करेगी कि महा विकास अगाढ़ी की सरकार कैसे काम करती है. वो क्या सही और ग़लत फ़ैसले लेती है, उनके फ़ैसले मराठी मानुष के हित में होते हैं या नहीं.''


राज और उद्धव ठाकरे के साथ आने की संभावनाओं पर देशपांडे कहते हैं, ''मुझे नहीं लगता कि उद्धव और राज ठाकरे साथ आएंगे. मनसे और शिवसेना की विचारधारा अलग-अलग है. शिवसेना मराठी मानुष के समर्थन की सिर्फ बात करती है लेकिन मनसे के कार्यकर्ता मराठी मानुष के लिए लड़ते हुए जेल तक जाते हैं. मनसे अपने इसी रास्ते पर आगे भी चलती रहेगी.''



मोदी सरकार सुस्त अर्थव्यवस्था को रफ़्तार क्यों नहीं दे पा रही

इसी सप्ताह भारत सरकार ने जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद के नए आंकड़े जारी किए और इन आंकड़ों ने इस बात की पुष्टी कर दी है कि भारतीय अर्थव्यवस्था लगातार ख़राब दौर से गुज़र रही है.




मौजूदा तिमाही में जीडीपी 4.5 फ़ीसद पर पहुंच गई जो पिछले छह साल में सबसे निचले स्तर पर है. पिछली तिमाही की भारत की जीडीपी 5 फ़ीसदी रही थी.


इस साल जुलाई में बजट पेश होने के बाद से सरकार ने अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए कई कदम उठाए हैं.


लेकिन अर्थव्यवस्था से जुड़े आंकड़ें देखने पर सवाल उठता है कि क्या सरकार के उठाए क़दम कारगर साबित हो रहे हैं?


 


पढ़िए शिशिर सिन्हा का नज़रिया -



इस दरमियान आप देखेंगे कि सरकार की तरफ़ से 30 से भी अधिक ऐसे क़दम उठाए गए हैं.


लेकिन सबसे अधिक चर्चा जिस बात की हुई है वो है कॉर्पोरेट टैक्स कट की. 20 सितंबर को कॉर्पोरेट टैक्स में कमी करने की घोषणा हुई थी.


इस टैक्स में कमी के दो स्तर हैं. 22 प्रतिशत की दर सभी कंपनियों पर लागू करने की बात हुई थी जबकि नई मैनुफ़ैक्चरिंग कंपनियों पर 15 प्रतिशत की दरों की बात हुई थी.


सबसे बड़ा सवाल ये उठा कि क्या इस नई कटौती का अर्थव्यवस्था को कोई फ़ायदा हुआ या नहीं.



अभी तक की स्थिति को देखें तो पता चलता है कि उसकी वजह से भारत में अब तक कोई नया निवेश नहीं आया है.


लेकिन इसके पीछे एक बड़ी वजह भी है. इस तरह के किसी फ़ैसले का असर देखने में दो-तीन महीने लगते हैं, कभी-कभी छह महीने तक भी लग जाता है.


अगर शेयर बाज़ार में देखें तो, बजट में सुपर रिच सरचार्ज जो बढ़ाया गया था उसका बुरा असर शेयर बाज़ार पर पड़ा था.


बाद में सरकार ने ये क़दम वापस ले लिया था लेकिन शेयर बाज़ार को तब तक हानि पहुंच चुकी थी. शेयर बाज़ार उस स्थिति से बहुत जल्दी नहीं उबर पाया.


उसके बाद अब भारतीय शेयर बाज़ार में जो स्थिति देखने को मिल रही है उसके लिए देश के भीतर के घटक उतने ज़िम्मेदार नहीं हैं जितना कि वैश्विक आर्थिक स्थिति है.


भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने वाले वैश्विक कारण



दूसरा कारण ये है कि यूरोप, अमरीका, पूरे अफ्रीका या फिर पूरे एशिया में - दुनिया के तमाम देशों में कहीं न कहीं अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ी हुई है. कई जगहों पर मंदी की स्थिति है.अमरीका और चीन के बीच जो व्यापार युद्ध की स्थिति है उस कारण पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर प्रभाव पड़ा है. भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रभावित होने का सबसे बड़ा कारण यही है.


किसी भी देश की कमाई होने के लिए ज़रूरी है कि देश में बनने वाला सामान बिके. अगर हमारा सामान देश के बाहर बिकेगा तभी तो कमाई होगी.


भारत के ऊपर तो दोहरी मार है- भारत के भीतर घरेलू बाज़ार में भी माल नहीं बिक रहा और रही विदेशी बाज़ार की बात तो वहां हमारा माल ख़रीदने वाला कोई नहीं क्योंकि वहां स्थिति ख़राब है.


ये वो कारण हैं जिन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को कुछ हद तक प्रभावित किया है.


क्या अर्थव्यवस्था को लेकर हुई है नीतिगत ग़लतियां?



अर्थव्यवस्था ऐसी गाड़ी है जो निवेश और खपत दो पहियों पर चलती है.भारत ने अब तक निवेश बढ़ाने के उपाय किए हैं. लेकिन ज़रूरी ये भी है कि साथ-साथ खपत बढ़ाने के बारे में क़दम उठाए जाएं.


अगर सरकार निवेश बढ़ाती है लेकिन खपत बढ़ाने के लिए क़दम नहीं उठाती तो उसका कुछ न कुछ असर दिखता है.


बात बजट की हो या फिर उसके बाद की बात हो, ख़ासतौर पर कॉर्पोरेट टैक्स में कमी करने की बात हो - ये निवेश बढ़ाने के लिए बड़ा क़दम था.


खपत बढ़ाने के लिए सरकार को आयकर में कमी करने की ज़रूरत होगी.



आयकर में कमी की जाएगी तो लोगों के हाथों में अधिक पैसे आएंगे. इसके साथ अगर लोगों को भरोसा दिलाया जाता है कि उन्हें चिंता करने की ज़रूरत नहीं है और उनकी नौकरियां सुरक्षित हैं, तो लोग खपत करना शुरू करेंगे.


खपत बढ़ेगी तो उद्योग जगत अधिक निवेश करने और अधिक सामान बनाने के लिए उत्साहित होगा.


पूरी व्यवस्था में जो एक कमी है वो ये है कि खपत बढ़ाने के लिए लोगों के हाथों में अधिक पैसे देने का इंतज़ाम सरकार ने नहीं किया है.


अगर सरकार ने ये काम कर दिया तो अर्थव्यवस्था की स्थिति काफ़ी बेहतर हो सकती है.